पदार्थान्वयभाषाः - हे पते द्युतिमन्दिवस ! पूर्वोक्त यह विचारणा तो विवाहसम्बन्ध से पहिले ही करनी चाहिये, न कि अब, क्योंकि दाम्पत्यसम्बन्धकाल अर्थात् विवाहकाल में तो मैं इस प्रकार काले रङ्ग की और विपरीत गुणवाली न थी, किन्तु आप जैसी सुन्दरी और समानगुणवाली थी। हे पते ! दैविक नियमों का उल्लङ्घन करने में किसी का भी सामर्थ्य नहीं है, अतः दाम्पत्य सम्बन्ध के अनन्तर इस मेरी पूर्वोक्त सामयिक स्थिति में शङ्का नहीं करनी चाहिए और जो आपने यह कहा है कि ये जो ‘दिवो धर्तारः’ तेजस्वी नक्षत्र आदि हमारी निन्दा करेंगे, सो नहीं, किन्तु (ते) वे (अमृतासः) अमरधर्मी हमारी अपेक्षा मुक्त अव्याहत अर्थात् स्वतन्त्र गति से विचरनेवाले महानुभाव (एतत्) यह (उशन्ति) चाहते हैं, कि (घ) इस ऐसी अवस्था में भी (एकस्य मर्त्यस्य) एक सन्तान का (चित्) तो अवश्य ही (त्यजसम्) गर्भाधान द्वारा मेरे प्रति त्याग हो, ऐसा इनको भी इष्ट है, क्योंकि दाम्पत्यकाल के अनन्तर दैव से उत्पन्न हुआ दोष न देखना चाहिये, अपितु एक सन्तान के लिये तो निःशङ्क गर्भाधान करना ही उचित है, इसलिये जो (ते) तेरा (मनः) मन है, उसको (अस्मे) हमारे (मनसि) मन में (निधायि) स्थिर कर अर्थात् मेरे मनोभाव के अनुकूल अपना मनोभाव बना और (जन्युः) पुनर्नव रूप में प्रकट होनेवाले (पतिः) तू मेरे पति (तन्वम्) मेरी काया में (आविविश्याः) सुतरां सम्यक् प्रकार से प्रवेश कर ॥३॥
भावार्थभाषाः - विवाह के अनन्तर किसी रोगादि से पत्नी कुरूप हो जावे, तो भी कम से कम एक पुत्र तो उत्पन्न करें, ऐसी व्यवस्था धर्मोपदेश से और शासन से करें ॥३॥ समीक्षा (सायण भाष्य)−“एकस्य चित्सर्वस्य जगतो मुख्यस्यापि प्रजापत्यादेः स्वदुहितृभगिन्यादीनां सम्बन्धोऽस्तीति शेषः” ‘एकस्य चित्’ यहाँ एक का अर्थ मुख्य करके प्रजापति आदि का अप्रासङ्गिक अध्याहार किया है। तथा ‘जन्युरिति लुप्तोपममेतत् जन्युरिव यथा जनयिता प्रजापतिः’ यहाँ प्रथम तो लुप्तोपमा गौरव है, दूसरे ‘जायते-इति जन्युः=जन्+युच् से युच् प्रत्यय हुआ है, णिजन्त से नहीं। जो यह जनयिता अर्थ किया है, वह तथा उपयुक्त अध्याहार अपनी कल्पनासिद्धि के लिये खींचातानी है ॥३॥